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कविता

नया बाजार

प्रेमशंकर शुक्ल


नया बाजार है
बेंच रहा है
आवश्यकता और चीजें साथ

धकियाता बढ़ रहा है आगे
आँखों में झोंक रहा इंपोर्टेड धूल
चकाचौंध है जिसमें चहुँओर
नया बाजार है

नया बाजार है
महीन चतुराई से कर रहा मिलावट
हमारे मस्तिष्क में।


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